यादों की परछाई उभरी !
मेरा मन था छु ले,
जा लिपट जाये, और पूछे कुछ सवाल !
मेरी चेतना से परे एक दीवार,
या थी भ्रम की कुछ लकीरे !
और थी क्षण प्रतिक्षण से उभरी स्मृति !
क्षणिक वियोग से उभरी तस्वीरे,
खो गयी जैसे टुटा एक स्वप्न,
और था वापस चेतना का समंदर !
सबकुछ आसपास पुनर्वत था, समेट नही पाया !
उन चेतनाओ से उभरी तस्वीरों को ..
बना नही पाया टूटे यादों के आईने !
बस यादों की एक परछाई उभरी !
सुजीत