करवट भी नही ले सकती ऐसी बंदिशें !
ये बड़ी ऊँची ऊँची गगनचुम्बी महलें,
लगता सूखा लंबा बरगद खड़ा हो !
बेरंग सुख गयी है इसकी हर पत्तियाँ,
पर रंग रोगन से सजाया गया है इतना !
किर्त्रिम रोशनियों में नहलाकर इनको,
देखो कैसे हरे रंग खिलते है इन पर !
किसी दसवीं मंजिल पर रोता एक बच्चा,
उब गया है छोटे गलियारों में घूमते घूमते !
फिर बड़े कौतुहल से उचक के देखता नीचे,
सड़क पर खेलते पास के गलीं को बच्चों को !
हर कदम सिमटा संसार चंद कमरों में,
मन है जो कह रहा मुझमे कहाँ है बंदिशें !
हर रोज बस …
चल देते हर सुबह उन खेतों की ओर,
जहाँ आज बड़ी ऊँची ईमारतें बन आयी है !
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सुजीत कुमार