आदत तो ऐसे चुप रहने की ही थी,
कम बोलना, चेहरे ऐसे जैसे शब्द दफ़न हो वर्षों से ;
यूँ तो ये रात अक्सर साथ देती है मेरा,
बयाँ करता शब्दों को,
तेरी कशमकश मुझे खमोश करती रहती हमेशा !
हाँ अक्सर शब्दों का थमना वही से शुरूवात करता ;
जब जब उसकी यादों की दस्तक होती;
और हुआ भी इसी तरह, कुछ लम्हों के बीत जाने के बात;
एक छोटा सा शब्दों में लिपटा जवाब;
मैंने पढ़ के भी जाने दिया ….
ये बीते लम्हों के बाद के चीजें क्योँ मुझे,
अर्थहीन सी लगती, ये किस्सा तो दशकों का था !
पता नहीं तर्कसंगत है भी नहीं ..
पुरानी चीजे कमजोर पर जाती ..
ये रिश्ता भी अब पुराना हो चला था .. !