दुरी चंद कदमो की, ये कैसा फासला था !
अनजान सिमट कर रह जाता हूँ , ये कैसा आसरा था !
खायालात ख़ामोशी का हाथ थामे चल रहे ,
कहाँ पूछा ? किधर जाने का रास्ता था ,
बस चंद गलियां गुजर जाये, आ जाये ,
एक सुनसान सीधी सड़क, बस इतना चलने का वास्ता था !
भीगे पलकों पर , कैसे ठहर जाये कोई ,
गिर कर उसे भी कुछ निभाना था !
झिलमिला रही आँखें, गुन गुना रहे थे रुंधे से रातो मे ,
क्योकि ख्वाबो को सुलाने का न कोई बहाना था !
दुरी चंद कदमो की, ये कैसा फासला था !
रचना : सुजीत कुमार लक्की