थोड़ी फुरसत दे ए जिंदगी ..
कहीं तो जाके ढूंड लाऊ खुद को,
खुद अपने से सिसकता वक्त की टिक टिक सोने नही देती,
ये मुखोटे लगाये इंसानों के शोर अब जीने नही देती !
नही देखा पता इन अंधेरो के चीरते प्रकश स्तंभों को ,
पराये से आंखे दिखाते है ये हमारी आँखों में घूर के !
किन चौराहों पर रुकते, की लोग आते है यहाँ,
सुना है लोग ऑनलाइन, जिंदगी ऑफलाइन हो गयी !
जब भी भाग के जाते कई हाथ बढ़ते थे आगे,
पर मेट्रो सवार जिंदगी अब मन के अंदर से गुजर गयी !
कैसे बचोगे इस मौसमी तुफानो से …
रुखाई के तूफान अक्सर उठते है इन शहरों में !
रचना : सुजीत कुमार लक्की