मंजिल से अनजान बन,
जिन्दगी बसर जरुर हो जायेगी !
आदतन रात की गोद में सर रख,
ज्यों ही कुछ सोचते,
और सुबह हो जाती,
ये बड़ी वक़्त पाबंद घढ़ीयाँ,
कुछ रुक रुक के क्यूँ नही चलती !
रोज टूटता मकसदों के मोह में,
और शाम को एक पथिक सा बन,
जिसे वर्षों से गुजरते गुजरते इन गलियों से,
कोई चाह नहीं हुई, उसे प्यारी नही ये गलियाँ !
यादों से रोज कह लेता था वो किस्से,
हर दिन के, सुबह और शाम वाले,
अब बिखरे किस्सों को हिचक जाता कहने से !
सोचता यादों के बिना मंजिल नहीं कोई,
जिन्दगी बसर जरुर हो जायेगी !