पतझरों से उजरे उजरे दिन लगते ,
दुपहरी है अब लगती विकल सी !
वैसाख के इस रूखे दिन तले,
कभी बचपन में सोचा करते थे !
और चुपके आहिस्ता से देखते थे,
माँ की आंखे कब झपके थोरी नींद में !
हम भाग चले सखा संग किसी नदिया की ओर !
अबकी वैसाखी दुपहरी , जाये अब किस ओर ??
रचना : सुजीत
na ab wo baisakh reh gya hai, na hi baisakhi dophar……nice poem