खिड़की की ओर नजर ले जाओ,
धुँधली सी तस्वीर बनाओ !
देखो तुम जब नजर फिराये,
हर चीज भागे बन के पराये !
रातों में फैला कल का एक शोर,
पाषाण राहों में चलने का बस होड़ !
बचपन का कौतुहल मन …
कहाँ से आती कहाँ को जाती रेल,
आज रात की नींद चुराये,
छुक छुक करती जैसे हो कोई खेल !
आँखे चुराये रात जो भागी,
कभी अँधेरी जगमग गली जागी !
कोसो दूर था घना अँधेरा
कहीं दूर टिम टिम सा एक कोना !
लालटेन तले देखा एक गाँव,
बिजली ने पसारी ना अबतक थी पांव !
जीवन की हर भीड़ से दूर,
पीछे उड़ाती रंगोली धूल !
जीवन की खेलों का खेल,
कभी अपनों का होता जो मेल !
कभी अकेला सा कर जाती .. ये रात की रेल … ये रात की रेल !
**कल – मशीन
: — सुजीत भारद्वाज
First time i steeped in here….nice post