कैसे माने चले गए थे कहीं !
ख़ामोशी का सबब ले बैठते जब हम,
तो चुपके से गुन गुनाते हो कहीं !
मायूस से लगते जब कभी हम,
थोड़ा गुदगुदाते हो कहीं !
कैसे सम्हले हम ठोकरों से,
खुद ही राहों मे खड़े मिल जाते हो कभी !
शायद मान बैठे गैर सभी,
अपने का अहसास दिलाते हो कभी !
अब तक कैसे समझे चले गए,
साये से दिख जाते हो कभी !
खामोश होकर खुद रहते हो कहीं,
और यारों को बहुत रुलाते हो कभी !
जब भी पूछ बैठा मैं हाल तेरा,
खुद यारों से छुपाते हो कभी !
हम बन जाते जब मगरूर,
क्या पास कभी बुलाते हो कभी !
सोचता हूँ तेरे बारे में हर पल,
क्या सपनों में सजाते हो कभी !
ना रुप ना रंग देखा तेरा कहीं ,
बस दोस्ती का संग दिखाते हो कभी,
परेशां से हुए जो हुए कहीं इन राहों में,
खुदा सा बन के सजदे में झुकाते हो कभी !