हाथ छोर कर जो चला हु तेरा !
परेशा ना हो मेरी गिरते सम्हलते कदमो पर ,
कदम जब बढ़ा ही दिया अब चल परेगा ही ये सिलसिला ! !
खवाहिश ही कब की मंजिलो को नापने की ,
बस चला हूँ .. और चलता रहे ये काफिला ! !
रचना : सुजीत कुमार लक्की
The Life Writer & Insane Poet
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बढ़िया!
बहुत अच्छी प्रस्तुति
bahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
क्या बात है
बहुत अच्छा लिखा है
बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
bahut achh hai