आहिस्ता आहिस्ता आगोश में आती ,
थोरी कपकपाती हाथों को सहलाती ,
ठिठुरती सिहरती ये बातें कह जाती ,
जब उनकी हँसी मन ही मन गुदगुदाती ,
ओस की बूँदें मन को है भरमाती ,
जब सूरज आँख मिचोली करके है जाती ,
कहीं अलाव पर जब बातें है छिड जाती,
और दूर कहीं कोई धुन है गुनगुनाती ,
जब सर्द की रातें है आती !
रचना : सुजीत कुमार लक्की
सुन्दर!!
जब सर्द की रातें है आती…
कुछ ऐसा ही हाल होता है.
आहिस्ता आहिस्ता आगोश में आती,
थोरी कपकपाती हाथों को सहलाती,
ठिठुरती सिहरती ये बातें कह जाती,
जब उनकी हँसी मन ही मन गुदगुदाती,
ओस की बूँदें मन को है भरमाती,
मनमोहक.
जब उनकी हँसी मन ही मन गुदगुदाती ,
ओस की बूँदें मन को है भरमाती ,
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया… बहुत सुंदर ….रचना….