साँझ जो पसरी धुँधला सवेरा,
घासों की गठरी, वो मैला कुचैला,
मटमैली हाथों में एक छोटा सा थैला,
लौटते खेतों से,नित की यही बेला !
बैठे ताकों में नभ भी रंगीला,
बात रात से, पड़ी काली सी साया,
घुप्प सी ख़ामोशी, जब शब्दों पर फैला,
फिर समझा जग को, ये पथ है पथरीला !
विस्मृत यादों पर जब कुछ ना जो उभरा,
छूटे सपनों पर दिखता पल पल का पहरा !
हर शाम समेटे एक रोज सवेरा,
वही राहें और एक खाली बसेरा !
क्रमशः …
नैपथ्य की ध्वनि के साथ गिरता परदा ..
और फिर ख़ामोश पड़ जाता ये रंगमंच !