ना कोई डाँटता,
ना ही फ़िक्र रहती साँझ से,पहले लौट जाये घर को ..
हाँ लौट आते है,
घिरे घिरे से बड़े बस्ती के लोगो के बीच से..
चुप चाप के दो क्षण,
मुझे अब खूब भाते है ये चार दीवार आमने सामने !
क्योँ बुझी सी रौशनी,
सपने और चैन तो खूब जम के जलाये थे अपने!
बड़ी ही ख़ामोशी उस तरफ,
क्या बताए उधर का वक्त तनहा क्योँ है…
दस्तक क्योँ वहाँ,
सूखे पत्ते बिखरे और जंजीरों से बंद है वहाँ के दरवाजे !
क्या बताए क्योँ उधर का वक्त तनहा !
सुजीत
We miss your inspirations. Wonderful thought…
Thanks 🙂