आज मे अपने गाँव चला …
कुछ ममता मिल जाये आँचल की,
आज फिर उनको लेने चला !
जिन गलियों मे बीता मेरा बचपन,
आज फिर उनको जीने चला !
कुछ नजरे बोझिल राहों पर ,
उनको मे तर करने चला !
कुछ नजरे हो अनजानी सी,
उनसे भी गले मे मिलने चला !
दादी अम्मा ने कहा “वक्त का कहाँ भरोसा “
मैं वक्त के साथ दौर लगाने चला !
आती जाती बिजली हो..
उबार खबर रस्ते हो..
इन्टरनेट मेट्रो की दुनिया से,
अपनी मिट्टी पर मैं जीने चला .
आज मे अपने गाँव चला …
रचना : सुजीत कुमार लक्की
कुछ नजरे बोझिल राहों पर ,
उनको मे तर करने चला !
बहुत बहुत शुभकामनायें। अपनो से मिलने का सुख और गाँव का जीवन अब तो सुखद सपना सा बन गया है। मगर अभी भी बहुत कुछ है गाँवों मे जो हमे अपनी और खीँचता है।
लकी जी आप सचमुच लकी हैं जो कम से कम गाँव तो जा रहे हैं – इस भागमभाग की दुनिया से।
सुन्दर भाव।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
अपनी मिट्टी पर मैं जीने चला .
अपनी मिट्टी पुकार ही लेती है
और फिर मैं भी आज अपने गाँव जा रहा हूँ
वर्तमान संक्रमण के युग मे तेजी से मरती जा रही ग्रामीण संस्कृति को बचाने की महत्ती आवश्यकता है गाँव की याद दिलाती रचना हेतु साधुवाद।
waah jaiye sir mitti ki sondhi khusboo ke maze lijioye…bahut sundar…
बहुत बढिया!
चलो कम से कम कुछ दिन तो प्राकृतिक वातावरण में रहोगे..बाकि इस कंक्रीट के जंगल में सिवाय टेंशन के रखा क्या है..
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Aap Gaon ja rahe hain aur sukhad anubhooti mujhe bhi ho rahi hai.
behad sunder