रोज ख़त्म होता एक और दिन …
एक शाम होती…
शाम का ढलता सूरज…
और क्या सोचते आप और हम …
परिदृश्य . . .
शाम का डूबता सूरज , जैसे रात को आवाज लगा रही हो !
उदेव्लित सा मन , जैसे कुछ तलाशता थका सा हो रहा !
परिस्थिति . . . .
हम भी शामिल हो जाये, उस कारवां में जो सुकून तलाशने जा रही,
जैसे दिन की बेजान नैनो को, रात एक शीतलता देने जा रही हो ,
पथिक . .
कुछ जा रहे जहाँ, एक ममता की फुहार का इन्तेजार है,
या खुशिया छलकाती, अपनों के प्यार का ऐतबार है,
या किसी आंसू को, आज रात की मादकता का इंकार ,
पराकाष्ठा . . .
पर में क्यों बन रहा , इस कारवां का पंछी,
जिसे न तलाश , जिसे न प्यास ,
बस है तो बस इस ढलते सूरज का अहसास ! ! !
भाव अच्छे हैं, स्वानुभव और सत्य का अन्वेषण कर रहे हैं.
कुछ पंक्तियाँ सुधार के लिए आग्रह कर रहे हैं.
(और कुछ शब्द भी – नयनों लिख सकते हैं)
सुन्दर भाव हैं।
पर में क्यों बन रहा , इस कारवां का पंछी,
जिसे न तलाश , जिसे न प्यास ,
बस है तो बस इस ढलते सूरज का अहसास ! ! !
-सुन्दर भाव उकेरे हैं. बधाई.