
वैसाखी दुपहरी !
पतझरों से उजरे उजरे दिन लगते , दुपहरी है अब लगती विकल सी ! वैसाख के इस रूखे दिन तले, कभी बचपन में सोचा करते थे ! और चुपके आहिस्ता …
वैसाखी दुपहरी ! Read MoreThe Life Writer & Insane Poet
पतझरों से उजरे उजरे दिन लगते , दुपहरी है अब लगती विकल सी ! वैसाख के इस रूखे दिन तले, कभी बचपन में सोचा करते थे ! और चुपके आहिस्ता …
वैसाखी दुपहरी ! Read Moreखामोश ही सही, पर रहों आसपास बनकर ! बिखर जाओ भले, रह जाओ एक अहसास बनकर ! दूर जाने से किसे कौन रोके, ठहर जाओ बस कुछ याद बनकर ! …
बैठे हो क्यों ख्वाब बन कर ? Read More“आज जन्मदिवस पर कुछ भाव अनायास मन में उठे ! इस कविता का संदर्भ : मैं गंगा किनारे बसे अंग प्रदेश से हूँ .. और अभी यमुना नदी के शहर …
अंग प्रदेश की भागीरथी Read Moreसृजन के शब्दों को सहारे नहीं मिलते ! वक्त की आपा धापी को सिरहाने नहीं मिलते ! कोशिश जब की ख्वाबो को चुराने की, रातों को नींद के बहाने नही …
वक्त की आपा धापी को सिरहाने नहीं मिलते ! Read Moreहै दंभ अब किन बातों का ! आंखे फाड़े काली रातों का ! विकट जो चुप्पी छाती है, और तभी सुनामी आती है ! बौने से जो अब पेड़ खड़े, …
और तभी सुनामी आती है ! Read Moreअब कौन डगर मुझे चैन मिले ! किस पथ जाऊ बस रैन मिले ! सूखे रूखे पतझर से, झुकते थकते डाली पर , अब खुशियों की कोई कुसुम खिले ! …
अब कौन डगर मुझे चैन मिले ! Read More