दोपहर पर कितना कुछ है लिखने के लिये ~ कुछ मित्रों ने कहा ये दोपहर इतना उपेक्षित क्यों ; तो एक कविता “दोपहर” पर कोशिश करिये ; एक दोपहर , शहर, स्त्री, एक गली, एक बेरोजगार, रोज दफ्तर जाता एक कामकाजी आदमी, एक पुराने घर में पुराना पंखा, क्या क्या कहता है ; कल्पना और शब्दों के गोते !
ये खाली दोपहर उबासी लिए आँखें,
जैसे सूना ससुराल ऊबती हुई स्त्री ;
दीवारों को घूरते ताकते ऊँघते ;
किसी किसी दिन घंटो नींद नहीं आती !
पुराना पंखा भी कैसी आवाजें करता ,
कुछ कुछ कहता रहता है वो भी,
गला बैठा है उसका ना जाने कब से,
कितनी दफा बोला है दिखा लाओ !
गली सुनसान सी हो जाती इस शहर की,
कभी कोई फेरीवाला आवाज लगा देता,
किसी किसी घर की सीढ़ियों पर,
जमा हो जाती है पुरानी औरतें ,
नई बहु से सबको ही शिकायतें है !
नींद में ही कुछ कुछ देर में ;
उसके पीठ पर हाथ फिरा देती माँ,
बच्चा छोटा है रोके फिर सो जाता है !
कल ही दोपहर की धुप झेली थी;
रोज रोज की तलाश भी तो अच्छी नहीं लगती ;
कुछ सिफारिशों का इंतेजाम किया है ;
इस धुप में डिग्री की कागज़ ना जल जाये !
कैंटीन से निकल कर दोपहर में देखता,
आस पास के बच्चे कुछ खेल खेलते है,
वापस दफ्तर की सीढियाँ चढ़ते हुऐ सोचता,
कई बरसों से मैंने भी तो सुकून का दोपहर नहीं देखा !
#Sujit

आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा,आपकी रचना बहुत अच्छी और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिश करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग http://www.gyanipandit.com पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें
शुक्रिया सराहना के लिए !!