
बुलबुले के बदले रोटी !
रिश्ता अजीब लगता पर,
बहुत संजीदा नाता उसका !
दो चार बुलबुले उड़ाते,
बहल जाते राहगीर मुसाफिर,
मकसद होता दो चार पैसे !
पूछते उम्मीदी नजरों से,
ले लो ये बुलबुले …
और फिर जोर एक फूँक से,
कई बुलबुले खुले आसमानों में,
सब ख़ुशी से देखते बस,
मुस्काते बच्चे कौतुहल भरे !
फिर हिल जाता सिर,
ना ना दुत्कार वाला,
कतरा जाती आँखें,
फिर बढ़ जाता आगे,
उड़ाते छल्ले बनाते बुलबुले,
देखो सपनों की फुहारें उड़ रही !
एक सवाल सा दो चार रुपये में,
क्यों नहीं बना लेते सपनों की फुहारें,
करोड़ो की आलीशान राह वालों !
देखता फिर चट दरकिनार,
रफ्ता रफ्ता हो किनारे..
फिर बारी अगले काफिले की,
सपनों के बुलबुले पर रोटी तो मिले ?
# सुजीत …