
या झुंझलाहट है इस तोड़ देने की !
चल ही दिया दो चार कदम तो क्या,
बीता ही कुछ पल साथ तो क्या !
सब कहके लौट गये मायूसी से,
अनजान हूँ में, हर बातों से अब !
ये वक्त जो बिना दुआओं से मिला,
माँगा इसे तो बिखर सा क्यूँ गया !
हार तो हर पल की ही है,
दाव ही रूठे मुक़द्दरों पर था !
अहसास शब्दों में रोज बाँट देता,
अब फिर लब्ज कहाँ से ले आऊ !
चुप सा हूँ पर गुमनाम नहीं,
बिखेरा है खुद को इस तरह,
हर पल,
समेटेंगे सब खुशियों के खातिर !
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