गली में आवाजें लगाता वो,
माथे पर बड़ी सी टोकड़ी जैसे,
सामानों का जखीरा उठा रखा हो ।
उसकी आवाज़ें कौतूहल से भरी,
विवश करती खिड़की से झाँकने को,
बच्चे भी ठिठोली करते पुनरावृति में ।
उम्मीद से भरी वो आवाज की कोई आये,
आजकल कोई आता नहीं निकल कर,
न उसको घेरकर बैठती मोहल्ले की औरतें,
न होती झिकझिक मोलजोल सामानों की ।
कोई जहरीली सी चीज है फैली फ़िज़ा में,
कुछ महीनों से लोग घरों से निकलते नहीं,
बस नहीं मानती है भूख और जिम्मेदारियां,
उम्मीद से हर नई गली को चीरती है,
फेरीवाले की आवाज ……. उम्मीद से भरी !
– सुजीत कुमार