सियासत ए राजधानी …

दिल्ली जहाँ सियासत कभी खत्म नहीं होती ! हर सुबह कई वादों की सौगात लेके आती ; तो शाम बिखरे वादों पर कहकहे लगाती ढल जाती ! राजनीती शास्त्र भी है शस्त्र भी उपयोगिता पर निर्भर है !!

विरोध तो स्वरुप है चिंतन का ही ; और एक प्रगतिशील चिंतन के लिए आवश्यक है विरोध ! पर विरोध का स्वरुप निकृष्ट ना हो ये हमारे विवेक पर आश्रित है ! तकनीक की उपयोगिता ने हमे सक्षम बनाया है की हम तर्क कर सके ; अपने विचार रख सके ; पर इसी परिचर्चा में कुछ विवेकहीनता भी उजागर हुई है ।

चुनाव अवसर है विवेकपूर्ण निर्णय लेने का जनमानस के लिए तो जन प्रतिनिधियों के लिए ये चुनौती कम जिम्मेदारी ज्यादा है ! कर्तव्य निर्वाह से लेकर पद लोलुपता सब इसी राजयोग का हिस्सा हैं ! निष्ठा और नीति स्वनिर्मित होती ये किसी शास्त्र में विदित अध्याय नहीं जो अर्जित की जा सके !

जनमत को कैसे परिभाषित करेंगे हम “ये तो ना भगवा है ना खादी है ; ये ना ही टोपी है ना तो लँगोटी है ” ये तो कभी भूख है तो कभी रोटी है !

सन्दर्भ की ओर रुख करे.. फिर सियासते ए राजधानी में महापर्व आयोजित है ! ” फिर कुछ वादे है जो पिछली दफा आधे थे फिर से उसको सब साधे है ” !

जनसभा तो होती ही है प्रायोजित आयोजित होती ही आ रही ; पर एक जनआंदोलन कहीं अपना अस्तित्व खो गया इन घटनाचक्र में खोकर कहीं दम तोड़ गया ! कुछ पुरानी स्मृति में लौटे तो शायद ही कुछ दशकों में जनमानस आंदोलित हुआ होगा ! आजादी की ख़ुशी खुमारी में वक़्त बीतता गया सरकारें आती जाती रही, नालें पुल सड़क बनते रहे बिगड़ते रहे ! और फिर दशकों दशकों के सफर में तंत्र में विकृतियाँ भी समाहित हुई । और एक चरम पर आके परम्परागत राजनीति ने इसका दुरूपयोग भी भरपूर किया और लोगों की उम्मीदें पीछे छूटती चली गयी ; खुद अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से अपेक्षा रखके जनता बार बार उपेक्षित होती रही !

आम नगरी/शहरी नागरिक से लेकर गाँव की सरल साधन विहीन जनता भी अपने जीवनस्तर में आये ठहराव से कहीं ना कहीं असंतुष्ट था ; जो भी उम्मीदें इस तंत्र से उसको थी उसमें ठहराव आ गया था ! और ऐसी ही कई चीजों की दबी मायूसी को एक चिंगारी चाहिए था ; चिंगारी था “लोकपाल” भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा ; केवल लोग भ्रष्टाचार ही नहीं अपनी सभी मायूसी को इस जनांदोलन से जोड़ के देखने लगे ; गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, विकास, स्वास्थ्य सभी मुद्दों से हतोत्साहित लोगों को व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने का एक मंच मिला और एक सिरा जिसे पकड़कर दूर जाया जा सकता था ! विरोध का ऐसा मंजर शायद ही दशको से किसी ने देखा होगा उच्च पदाधिकारी से लेकर इस तंत्र को चलाने वाले लोग भी अपनी भागीदारी दे रहे थे ; शिक्षक, कलाकार, क्षात्र, गरीब, अमीर, अभिनेता सब विरोध के इस मंच से इस कदर जुड़ते गए की जनसैलाब ने इस लोकतंत्र से सवाल कर दिया की हम जिसे चुने वो काम नहीं करे तो क्या करे ? क्यों हमे हक़ नहीं मिलता ? हमारा देश का विकास क्यों अवरुद्ध है ? हमारे देश का युवा क्यों बेरोजगार है ! शायद कभी ही ऐसा हुआ था की लोग अपने रोजगार और उद्यम को छोड़ डट गए थे लोकपाल आंदोलन से ! व्यक्ति का जुड़ाव अपने आप में एक आंदोलन के लिए व्यापक था !

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घटनाक्रम बदला फिर आंदोलन में सलग्न एवं कथित जनक कार्यकर्ताओं ने इस सिद्धांत पर चलने का निश्चय किया की – “राजनीति को सही करने के लिए इसमें भाग लेना होगा” एक अलग राजनीति सबके सहयोग और सहभागिता की राजनीति ; शिक्षित वर्ग की राजनीति ; मुद्दों की राजनीति ! कदम सार्थक था ; जनसैलाब को आशा की किरण दिखाई पड़ी की जब विगत वर्षों से परम्परागत राजनीती से कुछ नहीं मिला तो एक बार ये कदम भी सही ! इस तरह जन आंदोलन का राजनैतिक पदार्पण होता और आरम्भ होती नई राजनीति की नई परिपाटी ! क्या कदम ये सार्थक था ? मत विभिन्न हो सकते पर एक युवा और शिक्षित वर्ग ने जरूर इसे सार्थक माना !

बस “राजनीती शास्त्र भी है शस्त्र भी उपयोगिता पर निर्भर है ” और सियासत के मंच पर इतने घटनाक्रम आते रहे की उस जनआंदोलन का जो स्वरुप था अब वो धूमिल सा हो रहा ! कहीं चूक हुई ? क्या हुआ आखिर ऐसा ? स्वतंत्र समीक्षा की जा सकती है आइये करे – बड़े कार्य को संपादित करने के लिए छोटे छोटे चीजों से पहल की शुरुवात हो सकती ; यूँ ही फसल तो खेतों में नहीं उगती ; जुताई, बुआई से लेकर किसान कितने मेहनत करता ; अगर देश के राजनैतिक बंजर हो चुकी थी हम बंजर बेजार का रोना एक बार रो सकते लेकिन अगले दिन से उसे जोतने कोड़ने का तो काम शुरू ही करना होगा ; अगर हम दूसरे किसान के जमीन का रोना रोये की मुझे बंजर जमीं मिली ; तो अंततः हासिल कुछ नहीं मिलता ! आरोप प्रत्यारोप और अपनी अभिलाषा के बीच का असंतुलन हमे अनुशासनहीन हीन बना देता ; और हम अपने विवेक का दुरूपयोग करने लगते ! वक़्त से पहले हम कुछ बदल नहीं सकते ; दूसरों से प्रतिस्पर्धा में अक्सर अपना अक्स भूल जाते, रोज परिस्थितयों को दोष देना हमारी कमजोरी का सूचक होता ! ऊपर की विवेचना से आप समीक्षा कर सकते “जन आंदोलन से राजनीति में आये नयी पार्टी के संदर्भ में ; घटना क्रम से जोड़ कर विशेलषण कर सकते की क्या क्या इस सियासत में हुआ !

तो क्या राजनीति को बदलने जो आये थे उनको राजनीति ने ही बदल दिया ; शायद नहीं वो आज भी वैसा ही करेंगे जिस मकसद से जन सैलाब उमड़ा था ! लेकिन उनकी कुछ गलतियाँ जिसका इन्तेजार पुराने राजनीति के दिग्गज कर रहे थे की ये कुछ ऐसा गलती कर जाये की इन्हें संदर्भ विहीन किया जा सके ! और यही हुआ भी ; बिखरे उमीदों को वापस जोड़ना मुश्किल है लेकिन आंदोलन से आगे आये लोगो का राजनैतिक पतन भी एक अवसाद ही होगा हमारे देश के लिए फिर को शिक्षित, युवा अपने देश को बदलने का वीरा उठाने नहीं आयेगा !

बचपन की एक कहानी याद आ गयी ” बाबा भारती को एक घोडा था ; राजा को पसंद आ गया ; बाबा को डर प्रलोभन इत्यादि देने के बाद भी राजा को घोडा नहीं मिलता ; फिर वो भेष बदलकर एक बीमार राहगीर बनकर बाबा को रास्तें में मिलते; बाबा दया भाव से घोड़े पर बिठा कर उसे ले जाने लगते ; राजा चालाकी से घोडा लेके भागने लगता !
बाबा भारती ने कहा घोडा ले जाओ राजन लेकिन ये बात किसी को नहीं कहना की तुमने कैसे घोडा लिया ; लोगो का मानवता पर से, अनजान की मदद से, दयाभाव से विश्वास उठ जायेगा” !

बस विवेकपूर्ण निर्णय लीजिये, सरकार नहीं अपना भविष्य चुनिए “याद रहे कोई भरोसा कोई विश्वास हमेशा के लिये इस समाज से ना उठ जाए” !

— और फिर ….

जनमानस के लिए हर्ष की बात होनी चाहिए जब जब लोकतंत्र विजयी होता है ; आप किसी भी पार्टी विचारधार से जुड़े हो आप भी चाहते इस लोकतंत्र में सभी लोगों की सहभागिता बढे ; क्या आप नहीं चाहते की शिक्षित वर्ग आके सत्ता पर आसिन हो ; जहाँ पर जन जन की विकास की बात हो तो फिर आज विषाद कैसा ? जीत और हार विचारधारा की होती ! और समय के साथ ये परिवर्तित भी होती ; ६० साल से राजनीति की धुरी रही एक पार्टी जिसमें लाल बहादुर, नेहरू, इंदिरा से राजनितिज्ञ रहें आज सन्दर्भविहीन हो रहीं ! ये मात्र बदलाव ही नहीं सजगता का भी परिचायक है ; राजनीति का एकाकीपन भी खतरनाक है और अवसर बनते है नये लोगों के लिए वो आगे आके एक विकल्प बने तो ये देश के लिए एक स्वस्थ परम्परा की शरुवात ही है ! आज प्रधानमंत्री भी एक अपनी दूरदर्शिता लेके केंद्र में है तो दिल्ली की राज्य सरकार में एक नये परिदृश्य को स्वीकार कीजये ! लोकतंत्र विजयी है राष्ट्र प्रगतिशील है और आप सभी जन जन इसके जनक है !

देश की राजनीति में एक नई परिपाटी के जनक को शुभकामनायेँ !!

Written By – Sujit

About Sujit Kumar Lucky

Sujit Kumar Lucky - मेरी जन्मभूमी पतीत पावनी गंगा के पावन कछार पर अवश्थित शहर भागलपुर(बिहार ) .. अंग प्रदेश की भागीरथी से कालिंदी तट तक के सफर के बाद वर्तमान कर्मभूमि भागलपुर बिहार ! पेशे से डिजिटल मार्केटिंग प्रोफेशनल.. अपने विचारों में खोया रहने वाला एक सीधा संवेदनशील व्यक्ति हूँ. बस बहुरंगी जिन्दगी की कुछ रंगों को समेटे टूटे फूटे शब्दों में लिखता हूँ . "यादें ही यादें जुड़ती जा रही, हर रोज एक नया जिन्दगी का फलसफा, पीछे देखा तो एक कारवां सा बन गया ! : - सुजीत भारद्वाज

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6 Comments on “सियासत ए राजधानी …”

  1. Is rajneeti se to ab “arastu” aur “pleto” bhi chakrate honge..ab loktantra ka 66wan parva mna rahe h…to ye bhi sahi..Jai Common Insaan….!

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