मैं किसी पंक्ति में खरा कुछ वार्तालाप सुनता जा रहा था;
रोज में सुबह जा भीड़ में खो जाता,
पढ़ने की कोशिश करता कुछ देर के वक्त में अनेकों अजनबी चेहरों को !
कुछ चेहरों की रोज पुनरावृति भी होती, रोज के मुसाफिर होंगे इस जगह से रोज जातें होंगे;
इस शहर की किसी ओर किस छोर तक, भीड़ में कुछ देर तक हिस्सा बन जाते क्षणिक से सफर के !
कोई बात नहीं होती ..पता नहीं क्या सवाल पाले सब चले जाते अपने अपने गंतव्य पर बिछड़ते चले जातें अपने अपने पराव पर !
ऐसे ही सफर अनेकों सुबह का कई बर्षों से ….
मैंने जाना था कितना उबाऊ था सुबह की नींद और जिंदगी पर आता गुस्सा ! पर खामोशी से झुंझला कर चलता जाता !
सुना था उसे मैंने अपने पीछे पंक्ति में खड़े किसी से फोन पर बात में वो अधीर था जिंदगी से वो शख्स उसे कुछ चाहिए था,
जल्दी शायद .. क्या जिंदगी वक्त के हिसाब से और अधीरता को मान लेती कुछ देती ! मैं जानता था उस अजनबी शख्स के सवाल का उत्तर …
फिर दूसरे दिन भीड़ में फिर मिला नहीं .. किसी ओर निकल गया होगा अपने सवालों को लेके !
एक आम दिन से कुछ बातें लेके रात की बात में …
#सुजीत