सीढियों पर पड़े अखबार बंधे से,
रोज वही मुरझा जाते परे परे,
शिकायत भरी नजर रहती,
क्यों ना लाके बिखेर देते सिरहाने,
हवायें जो पलट पलट दे उनके पन्ने,
खोल दे उनके बंधनों को …
उन्हें भी मिलता था सुकून,
जब बचपन में छिना झपटी में,
लेके भागते थे हर किस्सों को उनकी,
और कभी कभी होती थी ,
इन्तेजार भी अपनी बारी आने की,
वो किस्से कहानियाँ को सहेज जाती थी नजरे,
आज मुँह मोड़ा हर पन्नों से तुम्हारे,
दिखती है मुझे हर किनारों पर बड़ी तस्वीरे बस,
नाचते गाते लोगो की, और बदलते कपड़े की कहानी,
या होती है एक बड़ी गाड़ी की जगमगाती रौशनी,
नहीं होती वक्त की सच्ची तस्वीरे अब अख़बारों में,
बस उन्हें छोर देता बंधे से वही …
खबरों का ढेर मन का बोझ तो नही बने ! !
@Lucky
One Comment on “यूँ अखबार बंधे से परे रहते !”
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