एक बार — !
यूँ किसी हमराह का असर है..!
ये पत्थर का बुत भी करवटें बदलता है !
पर ..
हमे डर है पत्थर का बुत कहीं इंसान ना बन जाये !
फिर —!
ये पत्थर का बुत जिसे इंसान बनाया था किसी ने,
इंसानों जैसे दिये थे अरमां ख्वाब सजाने के तुमने,
आज फिर देखो क्योँ दरारे पर रही इसमें,
क्या जाने टूट कर बिखर जाये ये बुत,
टूट कर बन जायेंगे हर टुकड़े बेजान से,
ये पत्थर बुत सुनता जा रहा,
परेशां से उलझे तेरे लब्ज सभी,
महसूस भी करता बिखरे हर शब्द तेरे !
क्योँ कशमशाहट सी होती इसको,
तेरी ख़ामोशी से ….
क्योँ बेजान हो भी, हलचल होती,
तेरी बेरुखी से ….
क्योँ शिकवे से भरी आंखें देखती,
तेरी बोझिल नजरो को …..
खुद बिखर कर, एक हँसी की फुहार चाहता
आखिर पत्थर के बुत को इंसान बनाया था तुने !
और फिर वही हुआ …
बीते वक्त में तुझसे मैंने कभी कहा था ……
इस पत्थर बुत से बातें मत करो ये इंसान बन जायेगा ..
आज खामोशी से तुमने इसे जर्जर कर दिया !!